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गोण्डा भी है झीलों का जिला

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गोण्डा भी है झीलों का जिला

गोंडा जिले के प्रमुख वेटलैंड्स में बांके ताल, भरथोली ताल, पार्वती-अरगा झील, कोंडर झील, पथरी-नोखान झील, सुहेला ताल, कुकही ताल, अर्थानी ताल, तारी ताल, चयवनमुनि सरोवर आदि प्रमुख हैं...

गोण्डा भी है झीलों का जिला

Thinking Point
अभिषेक दुबे, पर्यावरण एवं पशु अधिकार कार्यकर्ता, नेचर क्लब फाउंडेशन, गोण्डा
उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में गोंडा जिला है जहां पर दर्जनों बड़े वेटलैंड और सैकड़ो माध्यम आकार के वेटलैंड है जो इस भौगोलिक इलाके को भूगर्भ जल में बहुत ज्यादा धनी बनाते हैं। उदयपुर, भोपाल, इंदौर को झीलों का जिला कहा जाता है लेकिन उन जिलों से कहीं अधिक झीलें गोंडा जिले में है परंतु वे सभी बहुत अधिक उपेक्षा और मानवीय हस्तक्षेप का शिकार है। गोंडा जिले के प्रमुख वेटलैंड्स में बांके ताल, भरथोली ताल, पार्वती-अरगा झील, कोंडर झील, पथरी-नोखान झील, सुहेला ताल, कुकही ताल, अर्थानी ताल, तारी ताल, चयवनमुनि सरोवर आदि प्रमुख हैं। तराई क्षेत्र नेपाल के शिवालिक की पहाड़ियों के नीचे का क्षेत्र है जहां पर प्रचुर मात्रा में वर्षा जल और पहाड़ों से बरसाती नालों से आता हुआ जल इकट्ठा होता है यहां पर कई सारी छोटी बड़ी नदियां हैं जिनमें बड़े स्तर पर हर वर्ष बाढ़ भी आती है। इन नदियों और सभी वेटलैंड्स को जोड़ने वाले बहुत सारे प्राकृतिक नाले भी हैं और यह सभी मिलकर बहुत ही जटिल जलीय संरचना बनाते हैं। मानसून के दौरान नदियों का अतिरिक्त जल वेटलैंड्स अपने अंदर संजोकर रख लेते हैं और अन्य मौसम में नदियों को पानी उपलब्ध कराते हैं। इस क्षेत्र में भूजल सतह के लगभग नजदीक तक ही रहा है लेकिन विगत कुछ दशकों में बढ़ी हुई मानवीय जनसंख्या और बढ़ा हुआ मानवीय हस्तक्षेप भूजल को बड़ी तेजी से नीचे करता जा रहा है। गोंडा जनपद के वेटलैंड्स न सिर्फ नदियों के बाढ़ के प्रकोप को काम करते थे बल्कि यह भूजल को बढ़ाते थे, दर्जनों की संख्या में प्रवासी पक्षियों की प्रजातियां यहां पर बड़ी तादात में हर वर्ष आती थीं। लेकिन असंवेदनशीलता एवं कई समस्याओं के चलते यह सभी वेटलैंड्स धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। इनकी पानी को धारण करने की क्षमता बड़ी तेजी से घटती जा रही है। इनका आपस में एक दूसरे से संबंध, आसपास की नदियों से संबंध खत्म होता जा रहा है। और अगर ऐसे ही चलता रहा तो तराई के इस क्षेत्र में जहां पर पानी सतह के बिल्कुल नजदीक में हुआ करता था, वह भविष्य में बड़े जल संकट की ओर पहुंच सकता है। आइए हम बात करते हैं गोंडा के कुछ प्रमुख वेटलैंड्स की उनसे जुड़ी समस्याओं की। साथ ही साथ, अंत में हम बात करेंगे कि क्या उपाय इन वेटलैंड्स को बचाने के लिए किये जा सकते हैं।

1. बांके ताल: गोंडा जनपद के कर्नलगंज तहसील क्षेत्र में स्थित बांके ताल कृषि में इस्तेमाल होने वाले एक औजार बांका की तरह चंद्राकार आकार का एक बहुत ही विशाल तालाब है जिसका कुल क्षेत्रफल करीब 502 हेक्टेयर है। इस विशाल वेटलैंड में हर वर्ष सर्दियों में हजारों की ताकत में प्रवासी पक्षी आया करते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में यहां पर प्रवासी पक्षियों की आमद लगभग शून्य हो चुकी है। गोंडा जनपद की एक प्रमुख टेढ़ी नदी इस तालाब के तीन ओर से होकर बहते हुए आगे बढ़ती है। अर्थात टेढ़ी नदी को भी जल उपलब्ध कराने वाला यह प्रमुख तालाब हुआ करता था। लेकिन कृषि के विस्तार के कारण बांके ताल और टेढ़ी नदी को जोड़ने वाले प्राकृतिक नाले अधिकांश खत्म कर दिए गए और टेढ़ी नदी तथा इस तालाब के बीच का सतह के ऊपर का संपर्क काफी हद तक खत्म किया जा चुका है। बांके ताल को हर वर्ष मछली पालन के लिए पट्टे पर दिया जाता है जिससे मछली के व्यवसायी अधिक उत्पादन और मुनाफे के लिए इसमें विदेशी मछलियों को डालते हैं और इससे देसी मछलियों और जलीय जैवविविधता को बड़ा नुकसान पहुंच रहा है। जिन जगहों पर मछली पालन नहीं होता वह स्थान जलकुंभी और अन्य आक्रांता वनस्पतियों से पटे हुए हैं। झील के एकदम किनारो तक बड़े पैमाने पर खेती की जा रही है और खेती से बहता हुआ रसायन भी इस झील को प्रदूषित कर रहा है। झील के किनारे के गांव के नालियों का अपशिष्ट जल भी इस तालाब में गिराया जा रहा है जो इस तालाब में वनस्पतियों के अतिक्रमण को बढ़ावा दे रहा है। एक समय जलीय जैवविविधता में धनी इस विशाल तालाब की हालत आज बेहद खराब दिखाई देती है।

2. पार्वती-अरगा झील एवं कोंडर: गोंडा जिले के तरबगंज तहसील क्षेत्र के अंतर्गत दो प्रमुख झीलें जिनको रामसर साइट में भी शामिल किया गया है, वह है पार्वती और अरगा झीलें जिनका कुल क्षेत्रफल करीब 1084 हेक्टेयर है। यह दोनों झीलें सोहलवा वन्य जीव प्रभाव के अंतर्गत संरक्षित बर्ड सैंक्चुअरी हैं। यह दोनों झीलें भी प्रवासी पक्षियों का एक बड़ा आशियाना हुआ करती थी लेकिन बीते कुछ वर्षों में प्रवासी पक्षियों की आमद यहां पर भी बहुत कम हुई है। इन दोनों झीलों के एकदम किनारो तक हो रही कृषि की गतिविधियों के कारण खेतों से बहती हुई मिट्टी, रसायन न सिर्फ इन झीलों को उथला बना रहे हैं, प्रदूषित कर रहे हैं बल्कि उनकी जल ग्रहण क्षमता को भी लगातार कम करते जा रहे हैं। इन दोनों झीलों में पानी के कम होने का एक और बहुत बड़ा कारण इनका पार्वती झील के उत्तर-पश्चिम में स्थित कोंडर झील और कोंडर का टेढ़ी नदी और सरयू नदी से संबंध खत्म किया जाना है। पहले सरयू नदी का बाढ़ का जल टेढ़ी नदी में आता था और टेढ़ी का बाढ़ का जल कोंडर झील में आता था और फिर कोडर से एक प्राकृतिक नाले के सहारे अतिरिक्त पानी पार्वती झील में आता था और फिर अतिरिक्त पानी पार्वती झील से होता हुआ सोती नाले के सहारे नवाबगंज बाजार होते हुए वापस टेढ़ी नदी में चला जाता था। परंतु ये प्राकृतिक चैनल अब काफी हद तक बाधित किये जा चुके हैं जिससे इन झीलों में गर्मी आते-आते पानी बहुत कम रह जाता है। और यह समस्या गोंडा के और अन्य इलाकों के भी अधिकांश झीलों की भी है। पार्वती झील के उत्तर-पश्चिम में स्थित कोंडर झील भी करीब 237 हेक्टेयर में फैली एक विशाल झील है जिसका आकार मिट्टी के चूल्हे के आकार का है। कोंडर झील में भी अब प्रवासी पक्षियों की आमद ना के बराबर रह गई है और यह झील हाइड्रिला और जलकुंभी नामक वनस्पतियों से बुरी तरह से पट चुकी है। हालांकि गोंडा की डीएम सुश्री नेहा शर्मा और मुख्य विकास अधिकारी सुश्री अंकित जैन के द्वारा कोंडर झील के पुनरुद्धार के लिए प्रयास शुरू किए गए हैं जिससे अब इसका हाल सुधरने के आसार हैं।

3. पथरी-नौखान झील: गोंडा जिले के गोंडा और तरबगंज तहसील में स्थित पथरी और नौखान झीलें भी बहुत ही विशाल झीलें हैं जो टेढ़ी नदी के किनारे स्थित है। इन दोनों झीलों का कुल क्षेत्रफल करीब 433 हेक्टेयर है और यह न सिर्फ गोंडा की प्राकृतिक धरोहरों में से एक है बल्कि इसका कई सारी लोक कथाओं में भी जिक्र होता है। पथरी-नौखान झील से जुड़ी एक कहानी इस प्रकार है कि एक दुष्ट जमींदार से दुखी होकर रतन पांडे नाम के एक युवक ने सरयू माता से प्रार्थना की और टेढ़ी नदी उत्पन्न हुई और नदी ने पथरी-नौखन झील के भीतर स्थित उस जमींदार के महल को डूबा दिया। इन दोनों झीलों में भी बड़ी तादात में प्रवासी पक्षी आया करते थे परंतु अब उनकी आमद काफी कम रह गई है। इन झीलों के अधिकतर हिस्सों में किया जा रहे मछली पालन के कारण इसकी जैव विविधता को बड़ा नुकसान हुआ है साथ ही अन्य बचे हुए हिस्सों में व्याप्त गंदगी, खेतों और गांव से बहकर जाते हुए रसायन और जैविक अपशिष्ट इसमें भी वनस्पतियों का अतिक्रमण बढ़ाते हैं और मिट्टी के कटान से यह झीलें भी अधिकतर स्थानों पर उथली हुई हैं। 

4. अर्थानी और कुकही ताल: जिले के कर्नलगंज तहसील के अंतर्गत स्थित दो विशाल अर्थानी तालाब और कुकही तालाब है जो अगल-बगल ही स्थित है इनका कुल क्षेत्रफल करीब 72 हेक्टेयर है और गोंडा जनपद में प्रवासी पक्षियों की आमद में यह हमेशा से प्रमुख तालाबों में रहे हैं। वर्ष 2024 के दिसंबर माह में हमारे द्वारा गोंडा के विभिन्न वेटलैंड्स में बर्ड वाचिंग के लिए की गई यात्राओं में सबसे सुखद अनुभव इन्हीं दो तालाबों और इसके बगल से बहती हुई चंदू नदी में दिखी विभिन्न प्रजातियों की प्रवासी पक्षियों का रहा जिनमें यूरेशियन कूट, नॉर्दन पिनटेल, नॉर्दन शावलर, स्पॉट बिल्ड डक, ग्रे लैग गूस प्रमुख थीं। आज भी गोंडा जनपद में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी इन्हीं वेटलैंड्स में देखे जाते हैं। परंतु यदि इनका भ्रमण किया जाए तो यह दोनों तालाब एक विशाल मैदान की तरह दिखाई देते हैं। इन दोनों की जल ग्रहण की क्षमता बहुत कम रह गई है जिसके कारण अब इनकी अधिकांश हिस्सों में लोग खेती भी कर रहे हैं। इनकी इतनी बुरी हालत के बावजूद भी इस वर्ष सबसे अधिक प्रवासी पक्षी इनके बीच में बचे हुए थोड़े से पानी में विचरण करते देखे गए। कुछ दशक पहले जब सरयू नदी के किनारे बांधों का निर्माण नहीं हुआ था तब सरयू का बाढ़ का पानी इस पूरे क्षेत्र में आता था और यह सभी तालाब पूरी तरह से भरे हुए रहते थे। परंतु सरयू के किनारे बांध बन जाने के बाद और इन तालाबों में बगल से होने वाली मिट्टी की कटान इससे जुड़ने वाले प्राकृतिक नालों का खत्म होना आज इस जल से विहीन करता हुआ देखा जा सकता है। यदि इन तालाबों के संरक्षण पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले कुछ वर्षों में शायद प्रवासी पक्षी यहां से भी रूठ जाए। 

5. तारी ताल: गोंडा तहसील क्षेत्र में स्थित तारी ताल भी 150 हेक्टेयर में फैला एक विशाल तालाब है जिससे होकर गोंडा से निकलने वाली एक प्रमुख और पौराणिक नदी मनोरमा का जन्म होता है। इस विशाल तालाब का भी अधिकांश हिस्सा आज एक मैदान के रूप में दिखाई देता है। तालाब का मात्र एक छोटा सा हिस्सा है जहां पर 12 महीने पानी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस तालाब के अन्य हिस्सों में मछली पालन किया जा रहा है जिसके लिए तालाब के किनारे बांधों का निर्माण करके उसे अलग भी किया गया है। इस तालाब की दुर्दशा का ही परिणाम है कि यहां से निकलने वाली मनोरमा(मनवर) नदी आगे कुछ किलोमीटर तक एक पतली सी नाली की तरह दिखाई देती है जो साल के अधिकांश महीने अधिकतर जगह सूखी रहती है। मनोरमा नदी उत्तर प्रदेश शासन के द्वारा चिन्हित प्रदेश की 75 छोटी प्रमुख नदियों में से शामिल है जिसका उल्लेख पौराणिक शास्त्रों में भी मिलता है लेकिन तारी लाल की उपेक्षा नदी के लिए भी बड़ा संकट बनता जा रहा है। 

6. सुहेला ताल: गोंडा तहसील के अंतर्गत ही एक और विशाल तालाब है जिसका नाम सुहैला है। इसका कुल क्षेत्रफल नेशनल वेटलैंड एटलस के मुताबिक करीब 463 हेक्टेयर है और इसका 1905 के ब्रिटिश गैजेटियर में भी उल्लेख मिलता है। आज यह तालाब भी सबसे अधिक दयनीय हाल वाली जल राशियों में से एक है। इस विशाल तालाब में भी अब साल के अधिकतर महीने पानी दिखाई नहीं देता यह एक विशाल चारागाह के रूप में अब प्रतीत होता है। इस तालाब को बगल बहने वाली बिसुही नदी से जोड़ने वाला एक नाला इस तरह परिवर्तित किया गया कि अब इस तालाब का अधिकांश पानी उक्त नाले से होता हुआ बिसुही नदी में निकल जाता है और इसका अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। अन्य कई तालाबों की तरह ही इसका भी अधिकांश हिस्सा लोगों के कृषि भूमि के रूप में दर्ज है और उपेक्षा के कारण मानवीय गतिविधियां इसका अस्तित्व मिटाती जा रही हैं। 
प्रमुख समस्याएं

1) दस्तावेजों में संरक्षण का अभाव: इन झीलों की दुर्दशा का एक बड़ा कारण यह भी है कि वर्ल्ड वेटलैंड एटलस के द्वारा चिन्हित इनके भाग में से अधिकांश हिस्से राजस्व के अभिलेखों में लोगों की कृषि योग्य भूमि के रूप में दर्ज है और इसलिए उन हिस्सों की पूरी तरह उपेक्षा किया जाता है और लोग अपने मर्जी के अनुसार उनके स्वरूप में भी परिवर्तन करते हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले एमके बालाकृष्णन बनाम भारत गणराज्य, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कहा है की नेशनल वेटलैंड एटलस द्वारा चिन्हित सभी वेटलैंड्स के पूरे क्षेत्र को वेटलैंड रूल, 2017 के अंतर्गत संरक्षित किया जाना चाहिए परंतु इसके विपरीत गोंडा के अधिकांश ऐसे चिन्हित वेटलैंड में से कुछ ही सरकार के द्वारा वेटलैंड रूल के अंतर्गत नोटिफाई है और सिर्फ उन्हें ही वेटलैंड के रूप में मान्यता मिलती है।

2) झीलों के किनारे वनस्पतियों का नष्ट किया जाना: झीलों के एकदम किनारे तक कृषि कार्य हेतु किसानो के द्वारा घास के मैदान, वृक्षों को नष्ट किया गया जिससे खेती वाली जमीनों से मिट्टी लगातार बहती हुई इन झीलो में जाती रहती है और झीलों की गहराई कम करती रहती है। साथ ही खेतों में प्रयोग होने वाले रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक आदि के भी झील में जाने से कई तरह की वनस्पतियां भी आक्रमणकारी हुई हैं जिससे जलीय जीवन को बड़ा नुकसान पहुंचा है। मिट्टी के कटान के कारण उथली हुई इन झीलों में जल ग्रहण की क्षमता भी बहुत हद तक घटी है जो उनकी दुर्दशा का एक बड़ा कारण है।

3) मछली पालन के लिए हाइब्रिड और विदेशी मछलियों का डाला जाना: जिले के अधिकांश झीलों को मत्स्य पालन के लिए पट्टे पर दिया जाता है और पट्टा धारक अधिक उत्पादन और मुनाफे के लिए इनमें हाइब्रिड और विदेशी मछलियों के बीज डालते हैं जिससे इनमें देसी मछलियां बहुत हद तक खत्म हो चुकी हैं और जलीय जैव विविधता भी बड़े संकट में है। यह समस्याएं भी प्रवासी पक्षियों की संख्या कम होने का एक बड़ा कारण होती हैं। 

4) प्लास्टिक के कचरे और घरेलू जलीय अपशिष्ट: अधिकांश झीलों के किनारे कई स्थानों पर आसपास के बाजारों और गांव का प्लास्टिक और जलीय अपशिष्ट भी फेंका व बहाया जाता है जो इन झीलों में समस्याओं को बढ़ा रहा है। 

5) झीलों को जोड़ने वाले प्राकृतिक नालों को नष्ट किया जाना: झीलों को अन्य झीलों से और नदियों से जोड़ने वाले प्राकृतिक नालों को बड़े स्तर पर खत्म किया गया जिससे झीलों का नदियों का आपस में पानी का आदान-प्रदान भी बड़ा प्रभावित हुआ है और इसके साथ ही साथ इन झीलों और नदियों के बीच जलीय जीवों का प्रवास भी रुक गया है जिससे न सिर्फ बाढ़ की समस्या, तालाबों की सूखने की समस्या उत्पन्न हो रही है बल्कि जलीय जीवों का प्रवास रुकने से उनकी जेनेटिक विविधता भी बड़ा प्रभावित हो रही है जिससे उनकी पूरी प्रजाति भी संकट में आ सकती है और उनमें बीमारियां बढ़ने का खतरा भी बढ़ सकता है।
6) जागरूकता का अभाव: और सभी समस्याओं की यदि जड़ देखें तो वह जागरूकता का अभाव ही है क्योंकि जागरूकता की कमी ही तमाम मानवीय समस्याओं को जन्म दे रही है जो इन झीलों को नष्ट कर रहे हैं और इसका मुक्त भोगी भी स्वयं मनुष्य ही है। 

समाधान

1) वेटलैंड रूल 2017 के तहत संरक्षण: राष्ट्रीय वेटलैंड एटलस के अंतर्गत चिन्हित सभी छोटे-बड़े वेटलैंड का एमके बालाकृष्णन बनाम भारत गणराज्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले में कोर्ट के द्वारा दिए गए आदेश के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत बनाए गए वेटलैंड रूल, 2017 के माध्यम से संरक्षण दिया जाना चाहिए और इन सभी वेटलैंड्स, चाहे वह सरकारी भूमि में हो या निजी भूमि में हो, का राजस्व के अभिलेखों में भी वेटलैंड के रूप में अंकन किया जाना चाहिए।

2) झीलों के किनारे बफर जोन निर्धारित करना: स्टेट वेटलैंड अथॉरिटी के माध्यम से सभी वेटलैंड्स के किनारे एक बफर जोन अथवा एरिया ऑफ इन्फ्लुएंस को भी निर्धारित किया जाना चाहिए और वहां हानिकारक गतिविधियों को रोका जाना चाहिए। साथ ही, बफर जोन में स्थानीय घासो व वृक्षों को बढ़ावा देकर मिट्टी की कटान और रसायनों के बहाव पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

3) झीलों में प्लास्टिक का कचरा और घरेलू जलीय अपशिष्ट जाने से रोकना: स्थानीय प्रशासन को कड़ाई से झीलों के किनारे प्लास्टिक और अन्य अपशिष्ट फेके जाने तथा आसपास के बाजारों और गांव से घरेलू जलीय अपशिष्ट को झीलों में गिराए जाने पर रोक लगाने की बड़ी आवश्यकता है।

4) हाइब्रिड और विदेशी मछलियों के पालन पर रोक: मछली पालन के लिए दिए जाने वाले पट्टों में यह स्पष्ट निर्देश होना चाहिए की पट्टाधारक इन झीलों में, तालाबों में विदेशी और हाइब्रिड मछलियों के बीज नहीं डालेंगे, तालाबों के स्वरूप में परिवर्तन नहीं करेंगे और साथ ही मछली का अत्यधिक शिकार भी नहीं करेंगे व प्रवासी पक्षियों के अनुकूल वातावरण बनाए रखेंगे। और इनका अनुपालन भी ईमानदारी से कराया जाना चाहिए।

5) प्राकृतिक नालों और झीलों की हाई फ्लड लेवल को निर्धारित करना: झीलों को आपस में और नदियों से जोड़ने वाले सभी प्राकृतिक नालों को पुनः चिन्हित करके उनका पुनरुद्धार करना और साथ ही सभी झीलों के हाई फ्लड लेवल को निर्धारित करके उनका संरक्षण करना बेहद आवश्यक है।

6) जागरूकता बढ़ाना: ‘आज भी खरे हैं तालाब‘ नामक पुस्तक लिखने वाले पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी लिखते हैं कि पहले तालाबों का संरक्षण समाज के द्वारा स्वयं किया जाता था। समाज में ऐसे नियम थे की तालाब स्वत ही संरक्षित किए जाते थे और आम जनमानस मिलकर तालाबों का रखरखाव भी करते थे। आज एक बार फिर इस तरह की जन जागरूकता और संवेदना को बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि इन तालाबों का संरक्षण तभी प्रभावी ढंग से हो सकता है जब आमजन की इसमें सहभागिता हो। इसके लिए सरकार, विभिन्न गैर सरकारी संगठन और प्रकृति प्रेमियों के द्वारा नई पीढ़ी के बच्चों में बृहद जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते रहने की बड़ी आवश्यकता है। 

जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में पिछले कई वर्षों में मानसून में हो रहे परिवर्तन से वर्षा में हो रहे बदलाव के कारण तराई और उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में बारिश में कमी आई है और समय पर बारिश नहीं हो रही है। इसका गंभीर प्रभाव अभी हमें इसलिए नहीं दिख रहा है क्योंकि अभी कृषि कार्यों के लिए तथा पानी के घरेलू प्रयोग के लिए हम जमीन में बोरिंग करके भूजल को निकाल ले रहे हैं और हमारी खेती और पानी का घरेलू प्रयोग पूरा हो रहा है लेकिन जैसा की वैज्ञानिक बता रहे हैं की मानसून की स्थितियां आने वाले समय में और विकराल हो सकती हैं ऐसे में समय पर हमारी फसलों को बारिश का पानी भी नहीं मिलेगा और इसके कारण भूजल के बढ़ते प्रयोग से निकट भविष्य में भूजल भी संकट की स्थिति में पहुंच जाएगा और फिर झीलों की यह दुर्दशा और पानी की कमी हमें अनाज और पानी के बड़े संकट में ढकेल सकती है जो अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाले इस क्षेत्र में गृह युद्ध का कारण बन जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए अपने भविष्य को संवारने के लिए हमें इन वेटलैंड्स को बचाने की ओर बड़ी जिम्मेदारी से ध्यान देना चाहिए और यह कार्य सिर्फ सरकार, प्रशासन और गैर सरकारी संगठनों का नहीं बल्कि प्रत्येक मनुष्य का है।

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