Tidbit
दीमक का नाम सुनते ही लोगों के मन में नाजुक-सी शारीरिक रचना लेकिन विध्वंसक काम को अंजाम देने वाले जीव की तस्वीर सामने आ जाती है। पेड़-पौधों में पाया जाने वाला सेलुलोज ही दीमक का भोजन होता है। इसलिए वे तमाम चीजें दीमक का भोजन होती हैं जिनमें सेलुलोज होता है। बहुत सी सूखी लकड़ी पर तुमने दीमक का घर बना देखा होगा। लकड़ियों के बने फर्नीचर, कॉपी-किताबों जैसी बहुत सी चीजों को दीमक चट कर जाती है और फिर वह सामान किसी काम का नहीं रह जाता। दीमक जो सेलुलोज भोजन के रूप में प्राप्त करती है उसे पचा पाने की क्षमता उसमें नहीं होती है। इसे पचाने के लिए दीमक को दूसरे जीव की मदद लेना पड़ती है। ये दूसरे जीव प्रोटोजोआ कहलाते हैं, जो दीमक की आँतों में रहते हैं। दोनों के बीच सहभागिता का रिश्ता होता है। दीमक लकड़ी को चबाकर निगल जाती है और आँतों में रहने वाले प्रोटॅजोअंस इस लकड़ी की लुगदी को भोजन में बदल देते हैं। इस भोजन से ही दोनों जीव अपना जीवन चलाते हैं। दीमक पर्यावरण में सफाईगार की भूमिका निभाती है पर कई बार यह कीमती सामान को खराब करके नुकसानदायक भी साबित होती है। दीमक समूह में रहती है और भोजन तलाशने में एक-दूसरे की मदद भी करती है। ये चींटियों से मिलती-जुलती लगती हैं। इसलिए इन्हें ‘व्हाइट एंट‘ भी कहा जाता है। आकार के अलावा चींटियों से इनकी कोई समानता नहीं होती।
इन कोमल शरीर वाले कीटों की नकारात्मक छवि बनी हुई है। मगर आप इनकी खूबियों पर गौर करें तो पाएँगे कि ये आला दर्जे की वास्तुकार हैं। यहाँ हम अफ्रीकी दीमक, मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस के बारे में बात करेंगे जो सच में एक विस्मयकारी जीव है। ये टर्मीटिडी कुल और मेक्रोटर्मीटिनी उपकुल की सदस्य हैं। ये दीमक अफ्रीका के सब-सहारा क्षेत्र (सहारा का दक्षिणी भाग), घास के मैदानों (सवाना) और नम जंगलों में पाई जाती हैं और इनकी खासियत है - वातानुकूलित सामुदायिक आवास बनाने में दक्षता। चूँकि इन दीमकों की मौजूदगी का पर्यावरण पर सकारात्मक असर होता है इसलिए अफ्रीकी लोग इन दीमकों का हमेशा स्वागत करते हैं। ये दीमक निर्जीव (सड़ी) लकड़ी को खाती हैं और उर्वरीकरण के लिए आवश्यक सामग्री को छोटे टुकड़ों में बाँट देती हैं जो दीमक के मल और लार के रूप में बाहर आते हैं। दीमक का आवास टीले की शक्ल में होता है जहाँ वे अपने पूरे समूह के साथ रहती हैं। टीलों को ये अपनी सुविधा और जरूरत, दोनों के अनुरूप बनाती हैं। मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस अपने टीले का निर्माण कुछ इस तरह से करती हैं कि टीले के अन्दर की ऊष्मा और तापमान का नियंत्रण किया जा सके। मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस की इस अद्भुत क्षमता पर बहुत-से अध्ययन हुए हैं। सबसे पहले मैं आपको बता दूँ कि अफ्रीकी दीमक के टीलों के अन्दर के मुख्य हिस्सों का तापमान 31-31.6 डिग्री सेल्सियस के बीच ही बना रहता है फिर चाहे मौसम सर्दी का हो या अत्यधिक गर्मी का। यह इनकी अद्भुत कारीगरी का नमूना है। एक परिपक्व टीले का अन्दरूनी भाग हमेशा एक निश्चित योजना के अनुसार ही बना होता है जिसमें एक या एक से ज्यादा प्रजनन केन्द्र होते हैं जहाँ से मुख्य कक्ष के लिए बहुत-से मार्ग जाते हैं। इन मुख्य कक्ष में खाना, पानी और टीले के निर्माण के लिए जरूरी सभी तरह के मिट्टी के कण (जैसे मोटी रेत, महीन रेत, तलछट, चिकनी मिट्टी, ऑर्गेनिक कार्बन इकट्ठे किए जाते हैं। दीमक हमेशा नमी वाले गड्ढे के ऊपर मिट्टी से निर्माण करते हैं। वो जमीन के जलस्तर तक कम-से-कम दो लम्बी सुरंग खोदती हैं और फिर 3 मीटर चैड़े तलकक्ष का निर्माण करती हैं। यह लगभग 1 मीटर गहरा होता है जिसके बीच में एक मोटा स्तम्भ होता है जो टीले के मुख्य भाग को सहारा देता है। इसमें रानी रहती है और यहीं पर बागवानी और फफूँद की खेती होती है। तलकक्ष की भीतरी छत पर पतली, वृत्ताकार संघनन नली होती हैं और टीले के चारों तरफ वायुसंचालन के लिए दरारें होती हैं। हवा टीले के निचले भाग से अन्दर जाती है और ऊपरी भाग से बाहर निकलती है जिससे अन्दर के वातावरण में हमेशा ताजगी बनी रहती है और ऑक्सीजन की पूर्ति भी होती रहती है। सहारा और घास के मैदान होने के कारण बाहरी तापमान में बहुत उतार-चढ़ाव आ सकते हैं (जैसे रात में -1 डिग्री सेल्सियस से नीचे और दिन में 37.7 डिग्री सेल्सियस से ऊपर)। इसलिए ठण्डी रातों के दौरान ताप-क्षति को कम करने के लिए मिट्टी की आड़ का निर्माण करके दरारें बन्द कर दी जाती हैं और सूरज निकलने के दौरान हवा की आवा-जाही को बढ़ाने के लिए दरारें पूरी तरह खोल दी जाती हैं। ऊपर खोखली मीनार - चिमनी - होती हैं जो भूतल से 6 मीटर (20 फीट) की ऊँचाई पर होती हैं। ये चिमनियाँ हवा और नमी की नियमित आवा-जाही का संचालन करती हैं। ऐसा अनुमान है कि अगर दीमकों ने ऐसा नहीं किया तो रात के वक्त टीले के अन्दर का तापमान बहुत घट जाएगा और सूरज निकलने के बाद बहुत बढ़ जाएगा। और इससे उनके भोजन निर्माण में मुश्किल हो सकती है। दूसरी ओर, नम जंगलों की जलवायु तुलनात्मक रूप से ठण्डी होती है। इस वातावरण में मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस के लिए ताप-क्षति को रोकना बहुत जरूरी होता है। इसलिए यहाँ के टीले मोटी दीवारों वाले और गुम्बद के आकार के होते हैं। इसका कारण यह है कि इस तरह के आवासों में विस्तारित नालियों का होना जरूरी नहीं होता क्योंकि इससे ताप-क्षति बढ़ जाएगी। कुछ अन्य प्रजातियाँ अपने टीले को पानी और धूप से बचाने के लिए मिट्टी की छतरी से ढाँक लेती हैं। एक और दिलचस्प बात यह है कि वे सतह के नीचे से पानी इकट्ठा करती हैं और टीले के अन्दरूनी भाग में बिखरा देती हैं। इससे आश्चर्यजनक रूप से टीले का अन्दरूनी तापमान अच्छे खासे ढंग से संचालित होता है। भले ही बाहर का भाग कितना भी गर्म क्यों न हो, अन्दर का माहौल स्थिर और आरामदायक रहता है।
टीलों में कवक की खेतीः चींटियों की कुछ प्रजातियाँ - सबसे प्रसिद्ध लीफकटर चींटियाँ - अपने कोष्ठ में तुरन्त उपलब्ध होने वाले खाद्य पदार्थ के रूप में फफूँद उगाती हैं। और ऐसा ही गुबरैलों की कुछ प्रजातियाँ भी करती हैं। लेकिन कोई भी कीट मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस की तुलना में इतनी तकनीक आधारित खेती करता नहीं दिखता। मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस का आहार टर्मीटोमायसीज फफूँद है। वे लकड़ी को चबाती हैं और जो भी पौष्टिक तत्व ग्रहण किए जा सकते हैं उन्हें पचा लेती हैं। बाकी बचा हुआ मल के द्वारा निकल जाता है और फफूँद की बागवानी में इस्तेमाल किया जाता है। इन दीमकों का प्राथमिक खाद्य स्रोत लकड़ी नहीं बल्कि फफूँद होती है। इन टीलों का अध्ययन करते समय पहले-पहल फफूँद की खेती के विचार को लेकर कुछ सवाल उठ खड़े हुए। कुछ लोगों का मानना था कि इस फफूँद की भूमिका टीले में वायु-संचालन में रहती होगी। गहरी जाँच-पड़ताल से यह समझ में आया कि यह कवक कुछ मेक्रोटर्माइन प्रजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण खाद्य सहजीवी है। यह फफूँद मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस दीमक के टीलों में ही पाई जाती है। अफ्रीकी दीमक के मल पर फफूँद उपजती है। दीमक की पूरी बस्ती को ये खाद्य स्रोत (फफूँद) उपलब्ध हो सके इसलिए टीले में फफूँद उगाने के लिए कक्ष बने होते हैं। इस फफूँद की वृद्धि के लिए एक तयशुदा 31व-31.6व सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। नियत तापमान के बारे में एक मत है कि यह तापमान 30.5वसेल्सियस है। मेक्रोटर्मीस बेलीकोसस अपने टीलों को इतनी दक्षता से बनाती हैं कि जहाँ फफूँद उगती है वहाँ वे 31व-31.6व सेल्सियस के बीच का एक निश्चित तापमान बनाकर रखते हैं। यह दक्षता इसलिए भी महत्वपूर्ण होती है क्योंकि फफूँद की पैदावार तभी बढ़ सकती है जब उन्हें नियत तापमान लगातार मिलता रहे। इसलिए दीमक के टीले की रचना के अनेक पहलू इस तापमान को एकदम ऐसा ही बनाए रखने की एक कोशिश का हिस्सा हैं।
कृषि में ततैयों का महत्व
ततैया मधुमक्खी की भांति उड़ने वाली प्रजाति का जीव है। इन दोनों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता है। ततैया भी मधुमक्खी की ही तरह अपना छत्ता बनाती हैं, लेकिन यह मधुमक्खी की भांति अपने छत्ते में कुछ एकत्रित नहीं करती। यह अपना छत्ता पेड़ के साथ-साथ लोगों के घरों की दीवार में भी बना लेती हैं। ततैया का डंक भी मधुमक्खी के डंक की तरह जहरीले होता हैं। ततैया के काटने के बाद जलन, दर्द और सूजन होनी शुरू हो जाती हैं। ततैया एक प्रकार का कीट होता है। जीववैज्ञानिक दृष्टि से हायमेनोप्टेरा गण और आपोक्रिटा उपगण का हर वह कीट होता है जो चींटी या मक्खी न हो। कुछ जानी-मानी ततैया जातियाँ छत्तों में रहती हैं और जिसमें एक अण्डें देने वाली रानी होती है और अन्य सभी ततैयें कर्मी होते हैं। लेकिन अधिकतर ततैयें अकेले रहते हैं। अकेले रहने वाले बहुत से ततैयों की मादाएँ अन्य कीटों को डंक मारकर उनके जीवित लेकिन मूर्छित शरीरों में अण्डें देती हैं जिनसे शिशु निकलने पर वे उस कीट को खा जाते हैं। इस कारणवश कृषि में कई फसल का नाश करने वाले कीटों की रोकथाम में ततैयों का बहुत महत्व होता है।
नारियल एक बेहद उपयोगी फल
नारियल एक बहुवर्षी एवं एकबीजपत्री पौधा है। है। नारियल देर से पचने वाला, मूत्राशय शोधक, ग्राही, पुष्टिकारक, बलवर्धक, रक्तविकार नाशक, दाहशामक तथा वात-पित्त नाशक है। नारियल की तासीर ठंडी होती है। नारियल का पानी हल्का, प्यास बुझाने वाला, अग्निप्रदीपक, वीर्यवर्धक तथा मूत्र संस्थान के लिए बहुत उपयोगी होता है। सूखे नारियल से तेल निकाला जाता है। इस तेल की मालिश त्वचा तथा बालों के लिए बहुत अच्छी होती है। नारियल तेल की मालिश से मस्तिष्क भी ठंडा रहता है। गर्मी में लगने वाले दस्तों में एक कप नारियल पानी में पिसा जीरा मिलाकर पिलाने से दस्तों में तुरंत आराम मिलता है। बुखार के कारण बार-बार लगने वाली प्यास के इलाज के लिए नारियल की जटा को जलाकर गर्म पानी में डालकर रख दें। जब यह पानी ठंडा हो जाए तो छानकर इसे रोगी को पीने दें। इससे प्यास मिटती है। आँतों में कृमि की समस्या से निपटने के लिए हरा नारियल पीसकर उसकी एक-एक चम्मच मात्रा का सुबह-शाम नियमित रूप से सेवन करना चाहिए। नारियल के पानी की दो-दो बूँद सुबह-शाम कुछ दिनों तक नाक में टपकाने से आधा सीसी के दर्द में बहुत आराम मिलता है। सभी प्रकार की चोट-मोच की पीड़ा तथा सूजन दूर करने के लिए नारियल का बुरादा बनाकर उसमें हल्दी मिलाकर प्रभावित स्थान पर पट्टी बाँधें और सेंकें। विभिन्न त्वचा रोगों जैसे खाज-खुजली में नारियल के तेल में नीबू का रस और कपूर मिलाकर प्रभावित स्थान पर लगाने से लाभ मिलता है। हृदय के विकारो के जोखिम कम करने के लिए सूखा नारियल का सेवन करना चाहिए। सूखा नारियल में अधिक फाइबर होता है। जो हृदय को स्वस्थ बनाये रखने में मदद करता है। सूखे नारियल का सेवन करने से पाचन सम्बंधित सभी समस्याओं से बचने में मदद करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार क्रोहन्स डिजीज के उपचार में प्रयोग किए जाने वाले कॉर्टिकोस्टेराइड्स के समकक्ष नारियल में फाइटोस्टेराल्स नामक समूह तत्व होता है जो क्रोहन्स डिजीज में मुकाबला करता है। नारियल हमें मोटापे से भी बचाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक स्वस्थ वयस्क के भोजन में प्रतिदिन 15 मिग्रा जिंक होना जरूरी है जिससे मोटापे से बचा जा सके। ताजा नारियल में जिंक भरपूर मात्रा में होता है। हैजे में यदि उल्टियाँ बंद न हो पा रही हों तो रोगी को तुरंत नारियल पानी पिलाना चाहिए। इससे उल्टियाँ बंद हो जाती हैं।
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