Specialist’s Corner
मालती रावत, निदेशक, पंचायती राज मंत्रालय ,भारत सरकार
उत्तराखंड देवभूमि भारत की कई नदियों का, विशेष रूप से दो प्रमुख पवित्र नदियों गंगा और यमूना और उनकी सहायक नदियों का उद्गम क्षेत्र है। ये नदियां भारत की विशाल आबादी की जलपूर्ति करतीं हैं। इसके अलावा यहां कई प्राकृतिक झीलें, झरनें, पोखर, तालाब आदि पानी के स्त्रोत हैं जोकि पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों के पेयजल का मुख्य स्त्रोत हैं।
पहाड़ों की एक प्रचलित कहावत है की, पहाड़ों की जवानी और पानी पहाड़ों के काम नहीं आता, जो इस विरोधाभास का सटीक चित्रण है कि जलोद्गम क्षेत्र होने के बाद भी, उत्तराखंड के पर्वतीय गांव पेय जल की समस्याओं से निरंतर जूझते रहते हैं और पानी की कमी उत्तराखंड से पलायन का एक मुख्य कारण है। उत्तराखंड राज्य में विकास के कारण लगातार भूगर्भीय जल के बढ़ते उपयोग एवं उनके अनियोजित दोहन होने तथा प्र्याप्त सम्भरण (त्मबींतहम) न होने के कारण भूगर्भीय जल स्तर का लगातार हास्र हो रहा है। यह भूगर्भीय जल संसाधन ही प्राकृतिक झीलें, झरनें, पोखर, तालाबों के रूप में पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र पेयजल का मुख्य स्त्रोत है। उत्तराखंड राज्य के 13 जिलों का अधिकांश भाग पर्वतीय होने के कारण इन भूगर्भीय जल संसाधानों का सम्भरण (रिचार्ज) करना और भी आवश्यक हो गया है।
इस क्षेत्र में उत्तराखंड राज्य के गठन से पूर्व , भुमिगत जल संबंधी आंकड़ों की उपलब्धता न होने के कारण समस्या की गंभीरता का सही आकलन सभंव नहीं है, किन्तु निरंतर कम होते पानी के प्राकृतिक स्त्रोत जिन्हें स्थानीय भाषा में गदेरे, पोखर, नौला, धारा और झरने आदि कहा जाता है, स्थिति की गंभीरता को दर्शाते है। राज्य एंव केन्द्र सरकारें भी इस समस्या की गंभीरता को समझती हैं।
स्थिति को नियंत्रित करने के लिए राज्य व केंद्र सरकारें अपने अनेक कार्यकर्मों, योजनाओं द्वारा जल ग्रहण क्षेत्र संरक्षण एंव प्रबंधन में जुटि हैं । इस भगीरथ प्रयत्न के लिए सरकारों के प्रयास के साथ जन भागीदारी को भी जोड़ा जा रहा है। इसके लिए कई जन जागरूकता अभियान के साथ भारत सरकार ने पंचायतों को उनकी विकास योजनाओं के लिए दिए जाने वाले पन्द्रहवे वित्त आयोग के वित्तीय प्रावधान का 30ः फंड को, केवल जल संरक्षण के लिए खर्च करने का प्रावधान रखा गया है। 15वें वित्त आयोग ने वित्तीय वर्ष 2021-22 से 2025-26 के लिए ग्राम पंचायतों को उनकी जल आपूर्ति और स्वच्छता से संबंधित योजनाओं को बनाने के लिए अधिक धन सुनिश्चित करने के लिए 1,42,084 करोड़ रुपए के बद्ध अनुदान को जोड़ा है, जिसे पंचायतें केवल जलापूर्ति व स्वच्छता की योजनाओं पर ही खर्च कर सकती है। इसके इलावा भारत सरकार की कई स्कीमों जैसे ‘कैच द रैन “ अमृत सरोवर’ आदि के अंतर्गत, ग्राम पंचायतों को पारंपरिक जल संरक्षण के स्त्रोतों के जीर्णोद्धार, रख-रखाव और नए जल सरंक्षण के उपायोंध् योजनाओं के प्रचार-प्रसार और कार्यान्वयन से भूगर्भीय जल संसाधानों का सम्भरण (रिचार्ज) को बढावा दिया जा रहा है।
इसी संदर्भ में उत्तराखंड के पारंपरिक जल सरंक्षण के उपायों में चाल-खाल पर्वतीय क्षेत्रों के लिए भूमिगत जलाशयों को रिचार्ज और वर्षा जल संचय करने का एक अत्यंत सरल व उपयोगी का तरीका है, जिसे राज्य सरकार द्वारा प्रचलित किया जा रहा है। चाल-खाल पहाड़ों के कैचमैंट एरिया में बनाए गए उथले गड्डे होते हैं जोकि ढलान के अनुसार बनाई गई नालियों से जुडे होते हैं या ड्रैन लाइन में निर्मित होते हैं । वर्षा काल में पानी इन ढ़लानों पर बनी नालियों या ढलान में बहता हुआ गड्डे या तालाबों में एकत्रित हो जाता है। क्योंकि इस तरह के चाल-खाल हर ढ़लान के पास केचमेंट एरिया पर बनाए जाते थे इसलिय इनसे न केवल वर्षा जल संचय होता है , अपितु पानी के बहाव का वेग भी नियंत्रित होता है । इस प्रकार चाल-खाल से भूमि के कटाव में भी कमी आती है। ये चाल-खाल पशुओं के लिए पीने का पानी के लिए भी उपयोग में आते है । चाल-खाल में रूका हुआ वर्षा जल धीरे-धीरे रिस कर भूगर्भीय जल संसाधनों को रिचार्ज करता है, और आस पास के नौला, धारा, झरनों को भी नवजीवन प्रदान करता है ।
चाल-खाल जैसे पारंपरिक जल संरक्षण तरीकों के उपयोग का सजीव उदाहरण प्रस्तुत किया ग्राम के शिक्षक सच्चिनानंद भारती ने। उन्हों ने अपने गांव उफ्रैंखाल, जो की जिला पौढ़ी में है, अन्य पहाड़ी ग्रामों की तरह पानी की कमी से जूझता रहा था। इस गाँव के पास एक रौला (छोटी नदी) थी जो अब पूरी तरह सूख गई थी। अब इसे सच्चिनानंद भारती ने अपनी दूरदर्शिता और ग्रामवासियों के सहयोग से बारहमासी नदी में पुनर्जिवित कर दिया, जिसे ‘गाढ़ गंगा’ का नाम भी दिया है । श्री सच्चिनानंद भारती के अथक कार्यों की सराहना की माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने जून 2021 के मन की बात कार्यक्रम में भी की।
उनकी योजना सरल थी। सच्चिदानंद भारती जी ने उत्तराखंड की पारंपरिक चाल-खाल प्रणाली का उपयोग किया । इसके लिए ग्रामवासियों को जागरूक किया। गांव वालों ने ड्रेन लाइन को घेरने वाली ढलानों पर उपलब्ध जमीन के हर हिस्से पर छोटे-छोटे रिसाव के गड्ढे खोदे। गड्ढों ने पानी और मिट्टी के कटाव को रोका और भूगर्भीय जल के लिए रिसाव को भी बढ़ाया।
खालों के किनारे को सुरक्षित करने और मिट्टी को बह जाने से रोकने के लिए तुरंत गड्ढों के पास घास लगायी गई । गड्ढों के चारों ओर पारंपरिक बांज, बुरांस और उत्तीस के पेड़ लगाए गए जो उस पानी से पोषित हुए। इन्हीं पेड़ों ने बड़े होने के बाद,मिट्टी और पानी को बचाए रखने में मदद की, क्योंकि ये उत्तराखण्ड की मूल वनस्पति है और इनकी विशेषता मृदा संरक्षण और भूमि की नमी को बनाए रखना है। गड्ढों और पेड़ों का पारस्परिक लाभप्रद संबंध विकसित हुआ , जिसने पूरे भूगर्भीय जलचक्र को पुनर्जीवित कर दिया, और आश्चर्यजनक रूप से गाँव के पास के सूखे गाड़ को बारहमासी ‘गाड़ गंगा’ में बदल दिया। उफरेनखाल की सफलता को 40 से अधिक गांवों ने अपनाया है और इन खालों से मिट्टी में जल का रिसाव ने ना केवल भूजल के स्तर को बड़ाया किन्तु एक नदी को पुनर्जीवित कर दिया। और भी पंचायतें जन भागीदारी और कई सरकारी योजनाओं के फंड का उपयोग कर चाल खाल की सरल पारंपरिक तकनीक अपना सकती हैं, और अपने ग्राम पंचायत विकास योजना का हिस्सा बना चाल खयाल तकनीक द्वारा अपने पारंपरिक जल स्रोतों को पुनर्जीवित कर जल की समय का निदान कर सकती है।
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