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उत्तर प्रदेश के वन, पर्यावरण, जन्तु उद्यान एवं जलवायु परिवर्तन (स्वतंत्र प्रभार) डा0 अरूण कुमार सक्सेना की उपस्थिति में वन एवं वन्यजीव विभाग एवं सेन्टर फॉर इन्टरनेशनल एण्ड वर्ल्ड एग्रोफॉरेस्ट्री के मध्य ट्री आउटसाइड फॉरेस्ट इन इण्डिया (ज्व्थ्प्) कार्यक्रम के क्रियान्वयन हेतु एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर किये गये। वन एवं वन्यजीव विभाग की ओर से अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक, परियोजना, बी0 प्रभाकर एवं सेन्टर फॉर इन्टरनेशनल एण्ड वर्ल्ड एग्रोफॉरेस्ट्री के मनोज डवास ने हस्ताक्षर किया।
इस अवसर पर डा0 अरूण कुमार सक्सेना ने कहा कि प्रदेश को हरा-भरा कर पर्यावरण संतुलन स्थापित करने हेतु प्रदेश सरकार द्वारा वृहद् स्तर पर अन्तर्विभागीय समन्वय एवं व्यापक जन सहभागिता से वृहद् स्तर पर वृक्षारोपण किया गया है। उन्होंने कहा कि वैश्विक तापमान में वृद्धि को रोकने हेतु अधिक से अधिक पौध लगाना आवश्यक है। वर्ष 2027 तक वनावरण व वृक्षावरण में वृद्धि कर 15 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में हरित आवरण सृजित करने में कृषकों की महत्वपूर्ण भूमिका कृषि वानिकी से प्राप्त होने वाले लाभों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि सेन्टर फॉर इन्टरनेशनल एण्ड वर्ल्ड एग्रोफॉरेस्ट्री के साथ हस्ताक्षरित एम.ओ.यू. के अनुसार ट्री आउटसाइड फॉरेस्ट इन इण्डिया के अन्तर्गत एक हाईटेक नर्सरी की स्थापना, पूर्व से स्थापित नर्सरी का उच्चीकरण एवं स्थापना से विभाग एवं कृषकों को उच्च गुणवत्ता युक्त पौध सामग्री प्राप्त होने, उच्च गुणवत्ता युक्त पौधों को तैयार करने हेतु वन विभाग की क्षमता में वृद्धि, कृषकों एवं अन्य हितधारकों हेतु प्रदर्शनी एवं प्रशिक्षण के लिए आधारभूत संरचना का विकास, कृषि वानिकी को प्रोत्साहन एवं काष्ठ आधारित उद्योग हेतु प्रकाष्ठ उपलब्धता में वृद्धि होगी।
प्रधान मुख्य वन संरक्षक और विभागाध्यक्ष, सुधीर कुमार शर्मा ने मंत्री जी का स्वागत करते हुए कहा कि प्रदेश वृक्षारोपण की दृष्टि से देश में अग्रणी राज्य है तथा आगामी वर्षों में विभाग द्वारा प्रति वर्ष 35 करोड़ पौधों का रोपण किया जाना प्रस्तावित है। श्री शर्मा ने कहा कि तकनीकी सहयोग से लखनऊ में स्थापित प्रकाष्ठ उत्पादन में वृद्धि, कृषि विविधीकरण एवं कृषकों की सामाजिक व आर्थिक उन्नति में सहायक सिद्ध होगी। उल्लेखनीय है कि देश में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, असम, हरियाणा एवं राजस्थान में वन क्षेत्र के बाहर वृक्षावरण में वृद्धि, कृषकों को कृषि वानिकी से जोड़कर प्रकाष्ठ व विभिन्न वनोपज के उत्पादन में वृद्धि कर कृषकों का आर्थिक स्तर उन्नत करने एवं पर्यावरण में सुधार हेतु पोषित ट्री आउटसाइड फॉरेस्ट इन इण्डिया कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कुकरैल वन क्षेत्र लखनऊ मंे प्रस्तावित हाईटेक नर्सरी में प्रथम चरण में उच्च गुणवत्ता के 2.5 लाख पौधों का उत्पादन तथा आगामी वर्षों में 10.00 लाख उच्चगुणवत्ता के पौध तैयार किया जाना प्रस्तावित है। वन्यजीव मुख्यालय के पारिजात कक्ष में आयोजित समझौता ज्ञापन हस्ताक्षर कार्यक्रम में वन एवं वन्यजीव विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों एवं ब्प्थ्व्त्-प्ब्त्।थ् के प्रदेश प्रभारी राजू सूद ने हिस्सा लिया।
मार्गों के किनारे रोपित पौधों की सुरक्षा हेतु ट्री गार्ड लगाए जाएंः वन मंत्री
उत्तर प्रदेश के वन, पर्यावरण, जन्तु उद्यान एवं जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री (स्वतन्त्र प्रभार) डॉ. अरूण कुमार सक्सेना वन एवं वन्यजीव विभाग मुख्यालय स्थित पारिजात कक्ष में विभागीय कार्यों की समीक्षा की। वृक्षारोपण जन अभियान-2023 के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्य 35 करोड़ के सापेक्ष 36 करोड़ से अधिक पौध रोपित करने पर विभागीय अधिकारियों को बधाई देते हुए कहा कि रोपित पौधों का सिंचन, सुरक्षा व देखभाल कर शत प्रतिशत जीवितता सुनिश्चित करें। मंत्री ने वन जमा में उपलब्ध धनराशि, विधायक निधि व सी.एस.आर. मद से प्राप्त धनराशि व क्रय किए गए ट्री गार्ड एवं रोपित पौधों की सुरक्षा हेतु उपयोग किए जा रहे ट्री गार्डों की समीक्षा कर निर्देश दिए कि मार्गों के किनारे रोपित शत-प्रतिशत पौधों की सुरक्षा हेतु ट्री गार्ड लगाए जाएं। उन्होंने कहा कि व्यापक संपर्क व संवाद स्थापित कर ट्री गार्ड हेतु विधायक निधि, सी.एस.आर. मद व अन्य स्रोतों से धनराशि प्राप्त करने हेतु प्रयास किए जाएं। सक्सेना ने वृक्षारोपण जन अभियान 2023 के अन्तर्गत रोपित पौधों का सतत् निरीक्षण व सुरक्षा एवं पौधों की आवश्यकतानुसार सिंचाई करने का निर्देश दिया। उन्होंने कहा कि कृषकों व मनरेगा कार्ड होल्डरों व अन्य विभागों द्वारा रोपित किए गए पौधों को सुरक्षित रखने हेतु वनाधिकारी सम्बन्धित कृषकों व अन्य विभागों के अधिकारियों को तकनीकी ज्ञान व सलाह उपलब्ध कराना सुनिश्चित करें। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार ने वर्ष 2027 तक वर्तमान हरित आवरण में वृद्धि कर 15 प्रतिशत तक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। यह लक्ष्य प्राप्ति समस्त विभागों के सहयोग व रोपित पौधों की जीवितता सुनिश्चित करके ही सम्भव है।
White sambar spotted in Cauvery sanctuary
Nearly a decade after a white sambar (Rusa unicolor) was sighted in Bandipur, wildlife researchers have documented the presence of yet another leucistic sambar, this time in Cauvery Wildlife Sanctuary. This is considered the first recorded photographic documentation of this unique species — whose presence has caught the attention of conservationists — in Cauvery sanctuary. Studying the leopard population of Karnataka, wildlife researchers led by conservation scientist Sanjay Gubbi set up camera traps in Sangama range of the sanctuary. While retrieving images from the camera traps last month, the researchers were able to identify the presence of leucistic sambar. In two images, the female leucistic sambar was seen accompanying another adult female sambar. The researchers from Nature Conservation Foundation and Holematti Nature Foundation speculated that this could be a sub-adult individual with its mother. Karnataka’s first recorded ‘white’ deer was spotted at Bandipur Tiger Reserve in 2014. An official release from the researchers said: “Leucism is a condition in which the pigmentation of an animal’s skin is missing, causing white or pale skin. It can occur since birth due to a phenotype (trait of any living being) that may have formed from a defect in the animal’s development. It is different from albinism, which arises due to lack of melatonin in the animal’s skin, but the animal has pink or reddish eyes. But in leucism, the animal lacks the pink eyes.” Gubbi said: “Photographic data like this can offer many insights into the biology of these herbivore populations. Sambar is listed as a vulnerable species as per the IUCN Red List, so it is imperative that we continue to study the animal.” Interestingly, the team had previously documented presence of an albino dhole (Cuon alpinus) in the same area.
India's warming climate to triple groundwater depletion rates in the country: Study
Rising temperatures may triple the rate of groundwater loss in India by 2080, further threatening the country's food and water security, according to a study. The study, published online in the journal Science Advances, showed that farmers in India have adapted to warming temperatures by intensifying the withdrawal of groundwater used for irrigation. If the trend continues, the rate of groundwater loss could triple. Reduced water availability in India due to groundwater depletion and climate change could threaten the livelihoods of more than one-third of the country's 1.4 billion residents. "We find that farmers are already increasing irrigation use in response to warming temperatures, an adaptation strategy that has not been accounted for in previous projections of groundwater depletion in India," said Meha Jain, Assistant Professor at University of Michigan's School for Environment and Sustainability. "This is of concern, given that India is the world's largest consumer of groundwater and is a critical resource for the regional and global food supply," Jain said. India is the second-largest global producer of common cereal grains including rice and wheat. The study analysed historical data on groundwater levels, climate and crop water stress to look for recent changes in withdrawal rates due to warming. The researchers also used temperature and precipitation projections from 10 climate models to estimate future rates of groundwater loss across India. The new study also takes into account the fact that warmer temperatures may increase water demand from stressed crops, which in turn may lead to increased irrigation by farmers. Previous studies have shown that climate change could decrease the yield of staple Indian crops by up to 20 per cent by mid-century. At the same time, the country's groundwater is being depleted at an alarming rate, primarily because of water withdrawal for irrigation. The research team also found that warming temperatures coupled with declining winter precipitation more than offset added groundwater recharge from increased monsoon precipitation, resulting in accelerated groundwater declines. Across various climate-change scenarios, their estimates of groundwater-level declines between 2041 and 2080 were more than three times current depletion rates, on average. "Using our model estimates, we project that under a business-as-usual scenario, warming temperatures may triple groundwater depletion rates in the future and expand groundwater depletion hotspots to include south and central India," said lead author Nishan Bhattarai of the Department of Geography and Environmental Sustainability at the University of Oklahoma. Bhattarai, formerly a postdoctoral researcher in Jain's lab, suggested strong "policies and interventions to conserve groundwater", without which "warming temperatures will likely amplify India's already existing groundwater depletion problem, further challenging India's food and water security in the face of climate change".
Study discovers new method of recycling plastics into soap
A group of scientists has created a brand-new process for turning plastic waste into high-value chemicals called surfactants, which are used to make soap, detergent, and other products. When it comes to texture, appearance, and most importantly how they are used, plastics and soaps typically don't have much in common. However, there is an unexpected molecular link between the two, Fatty acid, which is used as a chemical precursor to soap, and polyethylene, one of the most widely used plastics in use today, have remarkably similar chemical structures. Long carbon chains underlie both substances, but fatty acids have an additional group of atoms at the end of the chain. This similarity, according to Guoliang "Greg" Liu, an associate professor of chemistry at the Virginia Tech College of Science, implied that it should be possible to convert polyethylene into fatty acids and then produce a soap with a few extra steps. A long polyethylene chain needed to be efficiently broken up into numerous short chains that weren't too short. Liu thought there might be a new upcycling technique that could take low-value plastic waste and transform it into a valuable, practical good. This research lays the groundwork for a new way to reduce waste by channelling used plastics into the production of other useful materials, Liu said. Over time, he hopes recycling facilities around the world will begin to implement this technique. If so, then consumers can expect to one day have the opportunity to buy revolutionary sustainable soap products that also lead to reduced plastic waste in landfills. For this reason, turning plastics into soaps can be demonstrated to be economically viable, added Liu, who is also an affiliated faculty member of the nanoscience program, part of the College of Science s Academy of Integrated Science as well as the Department of Materials Science and Engineering in the Virginia Tech College of Engineering. “It should be realised that plastic pollution is a global challenge rather than a problem of a few mainstream countries. Compared to a sophisticated process and complex catalyst or reagent, a simple process may be more accessible to many other countries worldwide," Xu said. "I hope this can be a good start for the warfighting plastic pollution."
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