क्या आप ‘प्राकृतिक‘ तौर पर असंवेदनशील हैं या असभ्य हैं? यहाँ बात पर्यावरण व प्रकृति के सन्दर्भ में हो रही है। क्या आप उन में से तो नहीं जो किसी पौधे या पेड़ के पास खड़े होने पर उसके पत्ते नोचते हैं या उसकी टहनियां तोड़ते हैं? या उनमें से जो फूलों को देखकर प्रसन्न होने के बजाय उन्हें तोड़ लेना चाहते हों? यदि ऐसा है तो आप निश्चित ही प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हैं। यदि कच्ची जमीन देखकर वहां पान थूक देतें हो या वहां कचरा फेंक देते हों तब आप होंगे असभ्य।
प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण, बचाव व सुधार के लिए न जाने कितनी सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं दिन रात एक किये हुई हैं। बात चाहें वृक्षारोपण की हो या स्वच्छता की, केवल सरकारी प्रयासों से तो बदलाव आने से रहा। सकारात्मक बदलाव तब तक संभव नहीं जब तक हम लोगों की मानसिकता नहीं बदलती। यह सोचना की पेड़ जंगलों में होते हैं और पंछी पिंजड़ों में, हमें न सिर्फ असंवेदनशील बल्कि असभ्य बनाता है। कहीं पेड़ लगे हैं तो उस जगह को कूड़ाघर समझ लेना, या घास फूल देखकर वहां अपनी गाय बकरी को चराने लगना भी असभ्यता की निशानी है। सड़क किनारे लगे पेड़ों को काटकर अवैध कब्जे करना या अपने घर को पास नक्शे के मानक से आगे तक बढ़ा लेना भी असभ्यता की पराकाष्ठा है। मैं तो कहूँगी की यह भी एक प्रकार का देशद्रोह घोषित कर दिया जाना चाहिए। अपनी धरा को बंजर करना तो सबसे बड़ा अपराध होना ही चाहिए, नहीं क्या?
आज कल सबको अपने लॉन में टाइल्स लगवा कर पक्का करवा लेने का शौक चढ़ा है। दिखावे के लिए कुछ एक गमले रख लिए जाते हैं। ज्यादातर सोसाइटी के फ्लैटों में रहने वालों के लिए अपना अलग बगीचा रखना संभव नहीं, ऐसे में गमलों से काम चलाना पड़ता है पर सोसाइटी के कम्पाउंड में उचित संख्या में पेड़ लगे होने ही चाहिए व घास भी होनी चाहिए। अगर आपकी सोसाइटी में ऐसा नहीं हैं और आप विरोध भी नहीं करते, तब आप हुए असंवेदनशील। सभी सरकारी इमारतों के बाहर भी पेड़ पौधे व हरियाली होना आवश्यक है पर हम सब जानते हैं की अब वहां भी पक्का करवा लिया जाता है। आप आजकल बन रही या हाल में बनी सरकारी बिल्डिगों को देख लीजिये। ऐसे में ये हुए असंवेदनशील, असभ्य व कर्तव्यहीन।
अब बात करे पौधारोपण को जनआंदोलन का रूप देने की तो इसका कोई फायदा नहीं यदि ये आंदोलन गांव देहात व पब्लिक पार्कों तक सिमट कर रह जाए तो। सही मायने में जनआंदोलन तो तब कहलाएगा जब शहर का हर मोहल्ला हर गली में उसका असर दिखे व पेड़ लहलहाएं। नहीं तो जंगल में मोर नाचा किसने देखा? स्कूल में इसे विषय बनाना तो उचित है पर एक एक विद्यार्थी जब तक इसका प्रैक्टिकल न करे, क्या फायदा? स्कूल से निकलकर बच्चे फूल पौधे तोड़ते हैं या लगाते हैं, यह किसकी जिम्मेदारी होगी? वे असभ्य बन रहे हैं या संवेदनशील, जब तक इसका रिकॉर्ड न रखा जाये, क्या फायदा? सच तो ये है की प्रकृति व पर्यावरण न तो विषय है न वस्तु, यह एक जीवनशैली है जिसे अपनाये बिना, जिसे जिए बिना, जिसे स्वीकारे बिना आप न तो सभ्य बन सकते हैं न ही संवेदनशील। आपको अपने आसपास पेड़ों को, पशु पक्षियों, स्वच्छता को उसी प्रकार अपनाना होगा जैसे आप अपने रिश्तेदारों को, मित्रों को या परवार के उन सदस्यों को अपनाते हैं जिनसे आप को कुछ असुविधा तो हो सकती है पर आप उनको काटकर फेंक भी नहीं सकते। अब आप तय करें आप को क्या बनना है।
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