गोपाचल पर्वतः यहां फूल, पत्ती व फल पर है सिर्फ पक्षियों का अधिकार-
- ए.के. सिंह
फूल, पत्ती तोड़ना मना हैः ये चेतावनी हर आमऔर खास बगीचे में देखने को मिल जाती है। लेकिन ऐतिहासिक ग्वालियर दुर्ग की तलहटी में स्थित गोपाचल पर्वत का मामला इससे कुछ अलग है। यहां इस तरह की कोई चेतावनी देखने कोे नहीं मिलती लेकिन यहां पर फूल, पत्ती तो क्या फल तोड़ना भी पूरी तरह से मना है। कारण, यहां लगे फलों पर आदमी का नहीं, पक्षियों का एकाधिकार है और वे पूरी तरह उनके लिए संरक्षित हैं। सिर्फ पपीता को छोड़कर। पपीता भी इसलिए कि वह पक्षियों को पसंद नहीं।
बारह हेक्टेयर में फैला सिद्धक्षेत्र गोपाचल पर्वत यूं तो जैन धर्म के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है। यहां पार्श्वनाथ भगवान के दो मंदिर हैं और पत्थरों से उकेरी गई 42 फीट ऊंची, 30 फीट चैड़ी प्रतिमा स्थापित है। किला तलहटी की चट्टान पर जहां दूब रोपना भी मुश्किल हो, वहां चारों तरफ हरियाली का होना ही एक उपलब्धि है। भगवान पार्श्वनाथ की देशनास्थली, भगवान सुप्रतिष्ठित केवली की निर्वाणस्थली के साथ 26 जिनालय एवं त्रिकाल चैबीसी पर्वत पर और दो जिनालय तलहटी में हैं, ऐसे गोपाचल पर्वत के दर्शन अद्वितीय हैं। बताया जाता है कि ग्वालियर के इस ऐतिहासिक दुर्ग पर गोपाचल पर्वत और एक पत्थर की बावड़ी का ऐतिहासिक महत्व होने के साथ ही जैन धर्मावलंबियों के लिए ये एक अनूठा तीर्थ स्थल है। यद्यपि ये प्रतिमाएं विश्व भर में अनूठी हैं, फिर भी अब तक इस धरोहर पर न तो जैन समाज का ही विशेष ध्यान गया है और न ही सरकार ने इनके मूल्य को समझा है।
श्री दिगंबर जैन गोपाचल पर्वत संरक्षक न्यास से जुड़े अजीत वरैया यहां पर छोटे-बड़े सवा लाख पेड़-पौधे होने का दावा करते हैं। इनमें चार हजार बड़े पेड हैं,जिनमें 800-1000 फलदार हैं। फलदार पेड़ों में भी ज्यादातर आम, अमरूद, अनार, सीताफल, शहतूत, आंवला और पपीता शामिल हैं। यहां फल, फूल और पत्तियों को सिर्फ पक्षियों को तोड़ने और उपयोग करने की आजादी है, इसके अलावा यहां तैनात कर्मचारी भी इन्हें हाथ नहीं लगाते हैं। यहां लगने वाले पपीते के फल का उपयोग ही यहां के कर्मचारी कर सकते हैं क्योंकि इसका उपयोग पक्षी नहीं करते हैं। 1984 से पहले यहां पर झाडि़यां और पत्थरों के अलावा कुछ नहीं था, लोग नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए आते थे। धीरे-धीरे यहां पर पौधे लगाए गए, उनकी रखवाली की गई तो वह पेड़ों में परिवर्तित हो गए। यहां पर लोगों को सुबह-शाम घूमने के लिए आने की सुविधा थी, लेकिन उन्होंने यहां लगाए गए पेड-पौधों को नुकसान पहुंचाना शुरू किया तो उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब श्रद्धालुओं को यहां आने दिया जाता है। पौधरोपण और वाटर हार्वेस्टिंग का काम जारी है।
लोक मत की मानें तो 22 वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के शासनकाल में जैन श्रावकों ने गोपाचल पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ, केवली भगवान और 24 तीर्थंकरो की 9 इंच से लेकर 57 फुट तक की प्रतिमाएं बनाई गई थी। कहा जाता है ये प्रतिमाएं मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं तथा इनका निर्माण तोमरवंसी राजा वीरमदेव, डूंगरसिंह व कीर्ति सिंह के काल में हुआ था। यहां जैन धर्मावलंबियों के तीर्थंकरों की एक से बढ़कर एक प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं। यहां 26 गुफाएं हैं, सभी में भगवान पार्श्वनाथ और तीर्थकरों की खड़ी और बैठने की मुद्रा में प्रतिमाएं हैं। कहा ये भी जाता है कि 1528 में मुस्लिम आक्रांता बाबर यहां आया था। जिसने इन एतिहासिक जैन प्रतिमाओं को खंडित करने का आदेश दिया था। मगर प्रतिमा खंडित करते समय उसके सैनिकों की आंखों की रोशनी चली गई। जब बाबर को यह बात पता चली तो उसने स्वयं गोपाचल पर्वत पर आकर इन प्रतिमाओं को तोड़ना का प्रयास किया, मगर उसके सैनिकों की बाबर की ही तरह उसकी भी आंखों की रोशनी चली गई। जिसके बाद उसने प्रतिज्ञा ली कि वे भविष्य में किसी भी जैन प्रतिमाओं नहीं तोड़ेगा। कहा जाता प्रतिज्ञा लेते ही बाबर और उसके सैनिकों की आंखों की रोशनी लौट आई। किले के उरवाई गेट और गोपाचल पर्वत पर जैन तीर्थंकरों की ये अप्रितम प्रतिमाएं हैं।
गोपाचल पर्वत सृष्टि को अहिंसा तथा हिंदू धर्म में आई बलिप्रथा को खत्म करने का सन्देश देता है। यहां स्थित विभिन्न मूर्तियों द्वारा समाज को कई तरह के संदेश देने की कोशिश की गई है। गोपाचल पर्वत का मुख्य आकर्षण भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा है। किंवदंती है कि डूंगर सिंह ने जिस श्रद्धा एवं भक्ति से जैन मत का पोषण किया था, उसके विपरीत शेरशाह शूरी ने पर्वत की इन मूर्तियों को तोड़कर खंडित किया। उसने एक बार स्वयं पार्श्वनाथ की प्रतिमा को खंडित करने के लिए तलवार उठाया था, लेकिन उसकी भुजाओं में शक्ति नहीं बची थी। इस चमत्कार से भयभीत होकर वह भाग खड़ा हुआ था। मुगल सम्राट बाबर ने 1527 ई में ग्वालियर पर विजय प्राप्त की। बाबर ने जैन प्रतिमाओं को नष्ट करने का आदेश दिया, क्योंकि उनके संस्मरण में उनका उल्लेख है। उरवाही गेट और एक पत्ताघाट बावड़ी में मूर्तियों के सिर क्षतिग्रस्त हो गए। उरवाही द्वार की मूर्तियों की मरम्मत स्थानीय जैनों द्वारा बाद में की गई थी। दक्षिण-पश्चिम समूह और उत्तर पश्चिम समूह की मूर्तियां बच गईं क्योंकि वे स्थानों तक पहुंचने के लिए अगोचर और कठिन थे। और मुगलों ने मुहम्मद शाह तक नियंत्रण रखा। मराठा कबीले सिंधिया , ने 1731 में नियंत्रण कर लिया। उससे कुछ ही समय पहले, जैन मंदिर, ग्वालियर शहर में जैन मंदिर, जैन स्वर्ण मंदिर सहित 1704 ईस्वी में फिर से जैन मंदिरों का निर्माण किया गया था।
गोपाचल के लिये प्रेम के वशीभूत होकर अनेक नामों एवं विशेषणों का प्रयोग किया जाता रहा। मिहिरकुल के राज्य के पन्द्रहवें वर्ष (सन् ५२७ ई.) में यहां के गढ़ को गोपभूधर, दशवी शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेख में गोपाद्रि तथा गोपगिरि, रत्नपाल कच्छपघात के लगभग १११५ ई. के शिलालेख में गोपक्षेत्र, विक्रम संवत् ११५० के शिलालेख में गोपाद्रि तथा अनेक शिलालेखों में गोपाचल, गोपशैल तथा गोपर्वत। वि. सं. ११६१ के शिलालेख में गोपालकेरि, ग्वालियर खेड़ा कहा गया है। इस नाम माला की विशेषता यह है कि इसके सभी मनकों में गोपाचल गढ़ को केन्द्र माना गया था। भट्टारक सुरेन्द्रर्कीित ने संवत् १७४० में रचित रविव्रत कथा में ग्वालियर को गढ़ गोपाचल लिखा हैः‘गढ़ गोपाचल नगर भलो शुभ थानों।’
‘ग्वालियर दुर्ग के दर्शन करते ही मानव मन के लोक व्यवहार जन्य ब्राह्म रूप एवं साथ ही शाश्वत् जीवन के मौलिक आधारों का आभास मिलता है। दूर से देखते ही यह दुर्दान्त सैनिक की निःशंक वृत्ति को सुदृढ़ता से निवाहे खड़ा दीखता है और जब उसके पास जाओ तो सत्य का शाश्वत सौष्ठव, शिव का आनन्द, मृत्यु और निर्वाण सन्देश का सदाबहार सौन्दर्य उसकी कलाकृतियों में बिखरा हुआ मिलता है। हिंसक आतताइयों ने उसकी इस शाश्वत् निधि को लूटकृखसोट के नाशक प्रहारों द्वारा मिटाना चाहा, पर वह मिटा न सके। वह आज भी जीतीकृजागती है, और मानव को सच्चे जीवन का सन्देश सुना रही है। ग्वालियर दुर्ग का यह तो महत्व है कि वह मानव को लोक व्यवहार के प्रपंचों से अंधे न होकर न फँसने के लिये सावधान करता है। और अंहिसा की अमोध शक्ति का पाठ पढ़ाता है। १५वीं शताब्दी में तोमर राजाओं के राज्यकाल में जैनियों का जोर बढ़ा और उस समय पूरी पहाड़ी को जैन तीर्थ बना दिया गया। यद्यपि यह तीर्थ क्षेत्र तो प्राचीन था, परन्तु इस काल में इसकी महिमा अधिक बढ़ी। सारी पहाड़ी पर ऊपरकृनीचे, बाहरकृभीतर चारों ओर गुफा मन्दिर खोद दिये गये ओर उनमें विशाल र्मूितयों का निर्माण कराया। गुफा मन्दिर, र्मूितयों की संख्या और विस्तार में सर्वाधिक है। यह सब ३३ वर्ष की देन है। र्मूितयाँ कलापूर्ण, सुघड़ एवं सौम्य हैं। अत्यन्त कुशल अनुभवी शिल्पियों द्वारा ििर्नमत हुई हैं। र्मूितयों का सौष्ठव, अंग विन्यास और भावाभिव्यंजन सभी कलाकारों की निपुणता की मूक साक्षी हैं।
मातृचेट (५२५ ई.) ने अपने शिलालेख में गोपाचल के विषय में लिखा हैः ‘नाना धातु विचित्रे गोपाहय नाम्नि भूधरे रम्ये’ (अर्थात् गोपाचल का भूधर जिन पर विभिन्न धातुएं मिलती हैं)। गोपाचल पर उपलब्ध यह प्राचीनतम शिलालेख हैं। वि. सं. १०११ के हांग के शिलालेख में गोपाचल को ‘विस्मैक निलय’’ लिखा है। इन सब भौतिक आकर्षणों के अतिरिक्त गोपाचलगढ़ के इतिहास में अनेक रोमांचकारी घटनायें भी गुम्फित हो गई। इन्हीं कारणों से गोपाचल के विषय में हिन्दी तथा फारसी के इतिहासकारों ने अन्य स्थानों के अपेक्षा अधिक ग्रंथ लिखें।कोई नहीं जानता कि गोपाचल दुर्ग कब बना।
देश और दुनिया से जैन धर्मावलंबी भगवान से प्रार्थना करने यहां आते हैं तो वहीं रविवार को यहां श्रद्धालुओं की अधिक भीड़ देखने को मिलती है, हालांकि पिछले कुछ समय से चल रहे लॉकडाउन के कारण यहां काफी कम संख्या में ही सैलानी आते हैं। इसकी सुंदरता को देखकर जैन धर्मावलंबियों के अलावा पर्यटक दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। क्योंकि ऐसी प्रतिमाएं आज के दौर में बनाना बेहद मुश्किल है। बता दें आज भी यह विश्व की सबसे विशाल 42 फुट ऊंची पद्मासन पारसनाथ की मूर्ति अपने अतिशय से पूर्ण है एवं जैन समाज के परम श्रद्धा का केंद्र है। इसके निर्माण काल का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। कामता प्रसाद जैन के शब्दों मेंकृ‘ग्वालियर दुर्ग आज का नहीं, कल का नहीं, वह तो मानव की अतीत वृत्ति का क्षेत्र होने के नाते उतना ही पुराना है जितना कि आकाश और काल। हाँ काल चक्र की फिरन से, इतिहास ने उसके नाना रूप देखें हैं।
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